दलीचंद जांगिड सातारा वालों की कलम से: ज्ञान चक्षु खुले तो बेड़ा पार……

हा आये हो तो पारिवारिक जबाब देहियों को निभाकर प्रभु भक्ति में लग जाना हि केवल "एक मात्र विकल्प है" इस भव सागर से तर जाने का, इसमें तिल मात्र शंका नहीं होनी चाहिए, जो संन्यास की श्रैणी में आता है वह घर पर रहकर भी निभा सकते है।

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ज्ञान चक्षु खुले तो बेड़ा पार……
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कवि के मन के तल से उठने वाले भाव व साधना प्रसाद के रुप में लिख दी बात लाख मोल की…..
किसी भी जप तप माला आसन ध्यान के लंबे आचरण के उपरान्त साधना में लीन ध्नास्थ अवस्था के दौरान किसी भी मनुष्य के ज्ञान चक्षु का अगर भेदन (खुल जाए) हो जाय तो समझ लेना की वह जीव मात्र संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है वह अपने आत्मानंद में आनन्द मग्न रहता है व परोपकार कार्य में जूट जाता है वह उसे सम्पूर्ण संसार अपना परिवार लगने लगता है ऐसा मेरे गुरुजी ने बहुत बर्षों पहले कहा था वह उपदेश आज भी मुझे याद है व मैं उसी राह पर चलने का प्रयास कर रहा हूं वह हर मानव मात्र को करना चाहिए ताकी जीवन राह सहज सरल बनी रहे व दुख आपको कभी सताएगा नहीं व समय आने पर मुक्तिबोध को पाकर मुक्ति धाम की यात्रा भी करा देगा……
परिवार मोह माया व बंधनों का महा जाल ही है, इससे ज्यादा ओर कुछ नहीं है जी…….
हा आये हो तो पारिवारिक जबाब देहियों को निभाकर प्रभु भक्ति में लग जाना हि केवल “एक मात्र विकल्प है” इस भव सागर से तर जाने का, इसमें तिल मात्र शंका नहीं होनी चाहिए, जो संन्यास की श्रैणी में आता है वह घर पर रहकर भी निभा सकते है।
जीवन दृश्य……
रुप राशि धन दौलत पर गर्व न करना,
जीवन ही नश्वर है मेरे भाई।
ध्यान लगाकर देखना गगन गर्भ में,
तारों का प्रभात होते हि छिप जाना।
देखना कलतक जो फूल बाग में खिले थे,
आज नयन देख रहे है इन फूलों का चुपके से मुर जाना।
संसार के सुन्दर शुभ्र उपवन में,
सर्व नाश का घर है………
कर्म, ईश्वर भक्ति अझर – अमर है,
यही साथ जायेगी,याद रखना मेरे भाई।
गुरु साक्षात परब्रह्म,,,,,, गुरु वाणी में कहा है की….
जब भी समय मिले अपनी आत्मा की उन्नति का साधन करो और सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करो।
जब तक मन जीवित है तब तक मृत्यु के मुख है। जब मन मरेगा और शब्द का प्रकाश आठों याम रहेगा तो समझो अमर हो गये।
निंदक और बहिर्मुखी व्यक्ति की संगति न करो, क्योंकि उसकी एक क्षण की संगति भी वर्षों की कमाई नष्ट कर देती है। इसीलिए संगत सोच समझकर करनी चाहिए।
संगत हि फल देही होती है…..
हमारे कवि कुळ के महान कवि तुलसी बाबा सुसंगति के महत्व का बखाण करते हुए कहते है की भले एवम सच्चे लोगों की अति अल्प संगति भी हमारे जीवन से कई प्रकार के दोषों व पापों को हर लेती है।
एक घड़ी आधी घड़ी,
आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की,
हरे कोटि अपराध।।
तुलसी चर्चा राम की,
भव सागर तर जाए…..
यह होता है संगति का फल।

🕉ओ३म् ऋषि अंगिरा जी नम:🕉
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लेखक कवि दलीचंद जांगिड सातारा महाराष्ट्र

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